ज़मानत के गैर-ज़िम्मेदाराना आदेशों से अंदेशा होता है कि कोर्ट ने दिमाग का इस्तेमाल नहीं कियाः सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

6 Dec 2019 12:00 PM IST

  • ज़मानत के गैर-ज़िम्मेदाराना आदेशों से अंदेशा होता है कि कोर्ट ने दिमाग का इस्तेमाल नहीं कियाः सुप्रीम कोर्ट

    बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा पास किए गए ऑर्डर से लगता है कि वह भौतिक तथ्यों पर गौर करने में विफल रहा और अपराध की गंभीरता और पूर्व में संदर्भित परिस्थितियों, जिन्हें ध्यान में रखाना चाहिए, उन पर दिमाग नहीं लगाया गया।

    सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट ‌की जयपुर बेंच के एक फैसले को रद्द करते हुए टिप्‍पणी की है कि जहां जमानत देने और ना देने का के आदेश में उन कारणों को नहीं बताया जाता, जिन्होंने निर्णय की जानकारी दी है तो ये अनुमान होता है कि दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया गया है।

    इस मामले में हत्या के एक आरोपी (महिपाल बनाम राजेश कुमार@पोलिया) को राजस्थान हाईकोर्ट ने जमानत दी थी। सेक्‍शन 439 सीआरपीसी के तहत दिए गए जमानत के आदेश को शिकायतकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी है।

    अपील की अनुमति देते हुए बेंच ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा पास किए गए ऑर्डर से लगता है कि वह भौतिक तथ्यों पर गौर करने में विफल रहा और अपराध की गंभीरता और पूर्व में संदर्भित परिस्थितियों, जिन्हें ध्यान में रखाना चाहिए, उन पर दिमाग नहीं लगाया गया।

    कोर्ट ने कहा कि जहां जमानत की एक अर्जी पहले खारिज हो गई हो, वहां अपीलीय आदालत पर ये दबाव ज्यादा होता है कि वो जमानत क्यों दी जाए, का वि‌श‌िष्‍ट कारण बताए। बेंच ने आदेश पर ध्यान देते हुए, जिसमें बहुत सारे कारण नहीं ‌दिए गए थे, टिप्‍पणी की कि यह जमानत देने या ना देने के एक आदेश देने लिए न्यायिक अनुशासन का एक अच्छा अभ्यास है कि अपनी विवेकाधीन शक्ति के प्रयोग के लिए कोर्ट ने जिन कारणों पर विचार किया है, उन्हें रिकॉर्ड पर लाए।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "मात्र ये कह देना कि, ' रि‌कॉर्ड का अवलोकन करने के बाद' अथवा 'मामले ‌की परिस्थितियों और तथ्यों के आधार पर' तर्कपूर्ण न्यायिक आदेश के उद्देश्‍य की पूर्ति नहीं करता। स्वतंत्र न्याय की मूल धारणा यही है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि प्रकट रूप से और निस्संदेह होते हुए दिखना भी चाहिए।

    जजों का तर्कपूर्ण निर्णय देने का कर्तव्य इस प्रतिबद्धता के केंद्र में है। जमानत देने का प्रश्न दोनों पक्षों, आपराधिक मुकदमे से गुजर रहे व्यक्ति की स्वतंत्रता और साथ ही आपराधिक न्याय प्रणाली के हितों को सुनिश्चित करने में कि जिन्होंने अपराध किया है, उन्हें न्याय में बाधा डालने का अवसर न मिले, से संबंधित है। जज ये स्पष्ट करने के लिए कि किस आधार पर फैसले तक पहुंचे है, कर्तव्यबद्घ हैं।"

    जस्टिस चंद्रचूड़ द्वारा दिए गए फैसले में किए गए अवलोकन निम्नलिखित हैं:

    जमानत का अधिकार अनिवार्यता के रूप में प्रयोग न हो

    सेक्‍शन 439 के तहत प्रदत्त जमानत प्रदान करने की शक्ति के व्यापक आयाम हैं। ये बखूबी तय है कि जमानत देने में कोर्ट अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करती है, और इसे विवेकपूर्ण तरीके से प्रयोग ही किया जाना चाहिए, न कि जमानत को अनिवार्यता मान लिया जाए।

    अदालत यह परखने के लिए बाध्य है कि आरोपी ने अपराध किया है, ये मानने का कोई ठोस या प्रथम दृष्टया कारण है?

    मामला जमानत-योग्य है या नहीं, इसके निर्धारण में कई कारकों का संतुलन शामिल है, जिनमें अपराध की प्रकृति, सजा की गंभीरता और आरोपियों की संलिप्तता पर प्रथम दृष्टया दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। जमानत का आवेदन को स्वीकार या अस्वीकृति करने के आधार के आकलन के ‌लिए अदालतों के पास कोई स्पष्‍ट फॉर्मूला मौजूद नहीं है।

    आकलन करने के चरण में कि क्या मामला जमानत-योग्य है या नहीं, अदालत को अभियुक्त द्वारा किए अपरा‌धिक कृत्य को उचित संदेहों से परे, स्‍थापित करने के लिए रिकॉर्ड में मौजूद साक्ष्यों की विस्तृत विवेचना मे जाने की आवश्यकता नहीं है।

    यह ट्रायल का विषय है। हालांकि, कोर्ट को यह जांचने की आवश्यकता है कि क्या अभियुक्त ने अपराध किया है, यह मानने के लिए प्रथम दृष्टया या उचित आधार मौजूद है, और शामिल किए गए विचारों के संतुलन पर, अभियुक्त की हिरासत में निरंतरता आपराधिक न्याय प्रणाली के उद्देश्य की पूर्ति करती है। जहां निचली अदालत द्वारा जमानत दी गई है, वहां अपीलीय अदालत का हस्तक्षेप धीमा होना चाहिए और जमानत रद्द करने की शक्ति के प्रयोग के लिए निर्धारित सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होना चाहिए।

    जमानत का प्रावधान कानून की सीमा के भीतर हो

    किसी आरोपी को जमानत पर रिहा करने का प्रावधान किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर निर्भर करता है। यही कारण है कि यह न्यायालय उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए जमानत के आदेश में हस्तक्षेप नहीं करता है। हालांकि, जहां उच्च न्यायालय ने जमानत देने में अपने विवेकाधिकार को बिना दिमाग लगाए इस्तेमाल किया या या इस न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन किया गया है, ऐसे में जमानत का आदेश रद्द किए जाने योग्या है।

    न्यायालय को अन्य बातों के साथ-साथ, प्रथम दृष्टया विचार करना चाहिए कि आरोपी ने अपराध किया है, अपराध की प्रकृति और गंभीरता और अभियुक्त की किसी भी तरीके से मुकदमे की कार्यवाही में बाधा डालने की या न्याय से बच निकलने की आशंका, जैसे तथ्यों पर पर भी ध्यान देना आवश्यक है।

    जमानत पर रिहा होने का प्रावधान न्यायिक प्रशासन में सार्वजनिक हित और लंबित मामले में व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संरक्षण के बीच एक उचित संतुलन बनाता है। हालांकि, जमानत का अनुदान कानून की सीमा के भीतर और इस न्यायालय द्वारा निर्धारित शर्तों के अनुपालन में सुरक्षित किया जाना है।

    यही कारण है कि एक अदालत को केस दर केस, उन कारकों को संतुलित करना चाहिए जो किसी मामले में जमानत देने के लिए विवेकाधीन शक्ति के के इस्तेमाल का मार्गदर्शन करते हैं। इस निर्धारण में निहित यह है कि क्या रिकॉर्ड के विश्लेषण पर, ऐसा प्रतीत होता है कि क्या ये भरोसा कराने का प्रथम दृष्टया या उचित कारण है कि अभियुक्त ने अपराध किया था। न्यायालय द्वारा इस चरण में निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्यों की विस्तार से जांच करना प्रासंगिक नहीं है।

    जमानत के आदेश को रद्द करने और जमानत के आवेदन के ठीक होने का आकलन में अंतर

    वो विचार जो एक अपील‌ीय अदालत की ‌शक्तियों का, जमानत देने के आदेश के ठीक होने का आंकलन करने और जमानत रद्द करने के आवेदन का आंकलन करने में, मार्गदर्शन करते हैं, एक दूसरे से भिन्न होत हैं। जमानत देने वाले आदेश के ठीक हाने का परीक्षण इस बात से किया जाता है कि क्या जमानत देने में विवेकाधिकार का अनुचित या मनमाना प्रयोग किया गया था।

    यह देखा जाता है कि क्या जमानत देने वाला आदेश विकृत, अवैध या अनुचित है। दूसरी ओर, जमानत रद्द करने के लिए दिए आवेदन की जांच आम तौर पर जमानत प्राप्त व्यक्ति द्वारा जमानत की शर्तों के उल्‍लंघन निगारानी के हालत की मौजूदगी के आधार की जाती है।

    अपीलीय न्यायालय का कर्तव्य

    जहां जमानत के आवेदन पर विचार कर रही एक अदालत प्रासंगिक कारकों पर विचार करने में विफल रहती है, अपीलीय अदालत जमानत के आदेश को रद्द कर सकती है। अपीलीय अदालत को इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि क्या जमानत देने वाला आदेश किसी बिना दिमाग के इस्तेमाल के दिया गया है, या रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के के आधार पर नहीं दिया गया है।

    इस मामले में अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट सिद्धांत शर्मा ने किया था।

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